Monday 11 August 2014

DaBe Pao

Tकोई आया है दबे पांव जरा चुप भी रहो

चुपके चुपके से दबे पांव जरा चुप भी रहो


कुछ न कुछ लम्हः लम्ह: बोलते रहे होगे

उनका दिल अपनी वफा तौलते रहे होगे

बंद रखा था जिसे खोलते रहे होगे


बस आज कुछ न कहो, आज इसे कहने दो

इसको अपने ही खयालात में बस बहने दो

गुफ्तगु इसकी, बस खयालों में चिराग जलें

जिसके साये में तिरे मेरे, सब सुराग पलें


देखो समझो जरा, सुनो भी जरा,चुप भी रहो

कोई आया हैै दबे पांव, जरा चुप भी रहो


अंघेरा आया, तेरी सांसों का अहसास लिए

तू हंसती हुई बिजली-सी कौंध जाती है

तेरी हथेलियों की गर्मियां, मुझे छूकर

अंधेरी रात को सकून-सा दे जाती है

तेरी जुल्फों़़ से गुजरती हुई ये मौजे-सबा.

उदास रात को खुशरंग बना जाती है


तेरी आंखों के उजालों मे उतर जाता हूं

तेरे होंठों पे फसाने-सा ठहर जाता हूं

तेरा चेहरा मेरे कांधों पे यूं है ठहरा हुआ

शाम को लौटेपरिंदे ने बनाया डेरा


देखो समझो जरा, सुनो भी जरा,चुप भी रहो

कोई आया है दबे पांव जरा चुप भी रहो !


तीसरा,शेष हिस्सा


बदलती जाती तपिश,आंच में तूझे छू कर

पिघलता जाता हूं मैं वर्फ-सा तूझे छूकर

बीतता जाता हूं मैं आज तूझे छू छू कर

रीतता जाता हूं मैं आज तूझे छू छू कर

कहां-कहां से गुजर जाता हूं तूझे छू कर

कभी पारे-सा बिखर जाता हूं तूझे छू कर


भूल जाता हूं मैं दुनियां-जहां के वीराने

न कुछ वजूद मेरा अौर ना ही अफसाने


बस पड़ा रहने दो चेहरा यूं मेरे कांधों पर

जैसे ठहरा हुआ हो वक्त मेरे कांधों पर


इस हकीकत को आज रात बदल जाने दो

थम गई आज सहर आज तो थम जाने दो


देखो समझो जरा,सुनो भी जरा,चुप भी रहो

कोई आया है दबे पांव, जरा चुप भी रहो!!

    

                  नौ वर्ष पहले


रात


गुमसुम पड़ी-सी सांस लेती रात

जागती-सी,सोचती-सी,अधखुली-सी रात


मातखाई,कुनमुनाती,छटपटाती रात

तेरे तीरे-नीमकश-सी ख़लिश देती रात


यह अंधेरा घन अंधेरा,धुप अंधेरी रात

डबडबाती, सुबकती-सी मात खाई रात


जुल्फ के साये में ठिठकी, तमन्ना-सी रात

तेरी पेशानी पे चमकी, इक अदा-सी रात


दिल में मेरे चुप पड़ी थी, अब तलक जो बात

जुबां पर आकर अटकती अटकती-सी बात

            दस वर्ष पहले

Rastria khel

कित् कित् कित् कित्

कित् कित् कित् कित्

पकड़ो-पकड़ो  दौड़ो-दौड़ो

वह देखो

वह तुम्हारी रोटी का पेड़

अपने बगीचे मे लगा रहा है

पकड़ो-पकड़ो दौड़ो-दौड़ो 

वह देखो


वह तुम्हारे पैरों तले की

जमीन हटा रहा है


कित् कित् कित् कित्

पकड़ो- पकड़ो दौड़ो-दौड़ो

वह देखो

वह तुम्हे झूठे सपनों से

बहला रहा है

पकड़ो-पकड़ो दौड़ो-दौड़ो

वह देखो

वह तुम्हे ठन्डे दरिया में

नहला रहा है


कित्-कित् कित्-कित्

पकड़ो-पकड़ो  दौड़ो-दौड़ो

वह देखो 

तुम्हारा ही एक भाई 

चकमा खा रहा है

दौड़ो-दौड़ो वह देखो

बेबात ही तुम्हे

आपस में लड़ा रहा है

पकड़ो-पकड़ो

भाग न पाए वह देखो

तुम्हारे ही कंधों पर पैर रख 

वह सीढ़ियां चढ़ता जा रहा है


पकड़ो-पकड़ो   दौड़ो-दौड़ो

बार-बार गलती ना करना

भाग न जाये वह देखो

कित्-कित् वह देखो


१९७९ में बनी

राष्ट्रिय खेल

MEER KI YAD

देख तोदिल कि जां से उठता है
ये धुंआं-सा कहां से उठता है!

शायद मीर की इस गजल को अगर मेंहंदी हसन की आवाज़ में सुनी है तो याद करें, न सुनी हो तो कोशिश करें ,सुन लेेगे तो जिन्दगी भर पीछा नहीं छोड़ेगी

फिर उठे आज उस गली से हम
जैसे कोई जहां से उठता है!


आखें मुश्किल से छलछलाती  है अब तो मौके ही नहीं अाते हैं!